शास्त्रीय संगीत का ग्वालियर घराना

ग्वालियर घराने के बारे में

भारतीय शास्त्रीय संगीत का सबसे पुराना घराना 'ग्वालियर घराना' है

भारतीय शास्त्रीय संगीत का सबसे पुराना घराना 'ग्वालियर घराना' है, जो अपने संगीत के लिए देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर है। यह घराना ख़याल गायकी का सबसे मशहूर घराना है। इस घराने ने संगीत की दुनिया को कई अनमोल रत्नों से सजाया है। ग्वालियर शहर को संगीत की नगरी के नाम से जाना जाता है, जहाँ संगीत के सात सुर हवाओं में घुले-मिले हैं। इस शहर की सुबह और शाम राग-रागिनियों की गूंज से गूंजती है। इस शहर की इमारतें संगीत की विरासत के अलाप गाती हैं और शहर के निवासी अपने पूर्वजों की परंपराओं की मधुर धुन सुनाते हैं।
  • ग्वालियर का गौरवशाली अतीत संगीत के संरक्षण से भरा पड़ा है। इसके कई शासक स्वयं संगीतकार थे या संगीत में गहरी रुचि रखते थे। ग्वालियर में प्रसिद्ध संगीतकार भी हुए, जो या तो शहर में पैदा हुए थे या उस्तादों से सीखने के लिए वहां आए थे। ग्वालियर को ध्रुपद की जन्मभूमि और ख्याल की परिष्कार भूमि माना जाता है। ग्वालियर में भारतीय संगीत की जो प्राचीन और समृद्ध परंपरा है, उस पर पूरा देश गर्व कर सकता है। इस परंपरा का इतिहास प्रसिद्ध संगीत जोड़ी मानसिंह-मृगनयनी से शुरू होता है, जिनकी संगीतशाला में ध्रुपद गायन को परिष्कृत और संरक्षित किया गया था। मानसिंह तोमर की संगीतशाला में ही तानसेन जैसी महान संगीत प्रतिभा विकसित हुई, जिसने ग्वालियर, रीवा और दिल्ली तक अपनी प्रतिभा की खुशबू फैलाई और आज संगीत के क्षेत्र में उन्होंने जो काम किया है, वह अविस्मरणीय है। राजा मानसिंह द्वारा निर्मित मान-मंदिर आज भी भारतीय स्थापत्य कला का अनूठा उदाहरण माना जाता है। इसी तरह उन्होंने मनकूतोहल नामक संगीत ग्रंथ की भी रचना की, जिसकी एक प्रति आज भी लंदन संग्रहालय में सुरक्षित है। इस ग्रंथ का फारसी अनुवाद रामपुर संग्रहालय में उपलब्ध है। मानसिंह और मृगनयनी ने एक संगीत विद्यालय भी स्थापित किया, जो संभवतः संगीत के नियोजित और सामूहिक अभ्यास का सबसे पुराना उदाहरण है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मानसिंह से पहले भी इस क्षेत्र में संगीत की एक मजबूत परंपरा रही होगी, लेकिन यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें अभी भी बहुत सारे शोध होने बाकी हैं।

  • मानसिंह तोमर के बाद ग्वालियर क्षेत्र के राजनीतिक इतिहास में अनेक उतार-चढ़ाव आए, लेकिन इसके बाद भी मानसिंह की संगीत परंपरा अक्षुण्ण और इन उतार-चढ़ावों से अछूती रही, ऐसा लगता है अन्यथा तानसेन जैसे संगीत रत्न का विकास संभव नहीं हो पाता। बेशक, यह केवल राजकीय संरक्षण से संभव नहीं हो सकता और ऐसा लगता है कि राजकीय परंपरा का स्थान लोक परंपरा ने ले लिया था।

  • इसे अच्छा संयोग ही कहा जाएगा कि ग्वालियर के राजपरिवार ने भी मानसिंह तोमर और संगीत सम्राट तानसेन की परंपरा को जीवित रखने और आगे बढ़ाने में पूरा सहयोग दिया। सिंधिया के समय में ही लखनऊ के कव्वाल घराने में मशहूर बड़े मोहम्मद खां ग्वालियर आए। इसी के साथ ध्रुपद और ख्याल गायकी का परस्पर आदान-प्रदान शुरू हुआ। ग्वालियर दरबार के हद्दू खां और नत्थू खां ने तुरंत ही ख्याल गायकी पर अद्भुत अधिकार प्राप्त कर लिया और यहीं से ग्वालियर की ख्याल तराना गायन शैली की महत्ता स्थापित हो गई। हद्दू खां और नत्थू खां ने इस अनूठी संगीत शैली का प्रचार-प्रसार जारी रखा और उदारतापूर्वक इस विद्या का दान किया। इन्हीं की बदौलत ग्वालियर उस समय संगीतकारों के लिए तीर्थस्थल बन गया था और दूर-दूर से संगीत साधक ग्वालियर की ओर आकर्षित होने लगे थे। इसी के चलते ग्वालियर की ख्याल गायकी पूरे देश में चर्चा का विषय बन गई थी। बाद में बालकृष्ण बुआ, वासुदेव बुआ, रहमत खां, निसार हुसैन खां, शंकर पंडित, वाजेबुआ आदि महान संगीतकारों ने इस शैली का प्रचार-प्रसार किया। बाद में पंडित कृष्णराव शंकर पंडित, उस्ताद हाफ़िज़ अली खान, श्री पर्वत सिंह आदि ने इस संगीत परंपरा को आगे बढ़ाया।

  • भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ भारतीय संगीत के क्षेत्र में संगीत को व्यवस्थित रूप देने और उसे जन-जन तक पहुंचाने का एक महान आंदोलन पंडित विष्णु नारायण भातखंडे के नेतृत्व में शुरू हुआ। भातखंडे जी का ग्वालियर और ग्वालियर राज्य से बहुत निकट का संपर्क था और यहां की जनता ने भी उनके महान उद्देश्यपूर्ण कार्यों में योगदान दिया। भातखंडे जी के मार्गदर्शन में 1918 में ग्वालियर में एक संगीत विद्यालय की स्थापना की गई, जो संभवतः मध्यप्रदेश का सबसे पुराना संगीत विद्यालय है।