संगीत सम्राट तानसेन

तानसेन के बारे में

अनहद के आकाश का शीर्षस्‍थ स्‍वर ''तानसेन''

संगीत सम्राट तानसेन (जन्म 1493 या 1506 में रामतनु मिश्रा के रूप में - मृत्यु 1586 या 1589 में तानसेन के रूप में) एक प्रमुख भारतीय शास्त्रीय संगीत संगीतकार, संगीतकार और गायक थे, जो कई रचनाओं के लिए जाने जाते थे, और एक वाद्य वादक भी थे जिन्होंने प्लक किए गए रबाब (मध्य एशियाई मूल के) को लोकप्रिय बनाया और उसमें सुधार किया। वे मुगल सम्राट जलालुद्दीन अकबर के दरबार में नवरत्नों (नौ रत्नों) में से एक थे। अकबर ने उन्हें संगीत सम्राट की उपाधि दी, जो एक सम्मानजनक शब्द है, जिसका अर्थ है विद्वान व्यक्ति।
  • संगीत नगरी ग्‍वालियर के समीप बेहट ग्राम में मकरंद पाण्‍डे के घर जन्‍मा यह असाधारण प्रतिभा का धनी बालक अपने बचपन में रामतनु या तन्‍ना के नाम से जाना गया। वृंदावन के स्‍वामी हरिदास से संगीत में पल्‍लवित होकर वह बालक आगे जाकर तानसेन के नाम से प्रख्‍यात हुआ। उनके आरंभिक काल में ग्‍वालियर पर कलाप्रिय नरेश राजा मानसिंह तोमर का शासन था, उनके प्रोत्‍साहन से ग्‍वालियर संगीत कला का विख्‍यात केन्‍द्र बन गया था, जहां पर बैजू, बक्‍सू कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायकगण एकत्र थे। उनके सहयोग से मानसिंह तोमर ने संगीत की ध्रुपद गायकी का अविष्‍कार और प्रचार किया था। ऐसे वातावरण में तानसेन का जन्‍म और उनकी संगीत शिक्षा हुई थी। उनकी आरम्भिक शिक्षा ग्‍वालियर के उन विख्‍यात संगीतज्ञों से जिनमें बक्‍सू और महमूद जैसे प्रख्‍यात संगीतकार भी हो सकते हैं, से प्राप्‍त होने की संभावना है।

  • मानसिंह तोमर की मृत्‍यु होने और विक्रमाजीत से ग्‍वालियर का राज्‍याधिकार छिन जाने के कारण वहां के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी। उस परिस्थिति में तानसेन को ग्‍वालियर में उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त करना संभव प्रतीत नहीं हुआ। अत: वे संवत् 1576 के बाद किसी समय वृन्‍दावन चले गये। जहां पर उन्‍होंने स्‍वामी हरिदास जी से संगीत की उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त की थी। अपने उत्‍तर जीवन में उन्‍होंने अष्‍टछाप के संगीतचार्य गोविंद स्‍वामी से भी कीर्तन पद्धति का गायन सीखा था। सूफी फकीर गौस मुहम्‍मद, तानसेन के श्रद्धास्‍पद थे, किन्‍तु उन्‍हें तानसेन का संगीत गुरु बतलाना प्रामाणित नहीं मालूम होता है।

  • संगीत विद्या में पारंगत होने पर तानसेन जीविकोपार्जन के लिये चल दिये। वे सर्वप्रथम शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खां के आश्रय में रहे और फिर बांधवगढ़ के राजा रामचन्‍द्र के दरबारी गायक नियुक्‍त हुये। बांधवगढ़ में रहते हुये उन्‍हें विपुल धन वैभव और मान-सम्‍मान प्राप्‍त हुआ तथा उनकी व्‍यापक प्रसिद्धि हुई। जब मुगल सम्राट अकबर ने उनके गायन की प्रशंसा सुनी, तो उन्‍होंने उनको अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्‍नों में स्‍थान दिया, इस प्रकार सं. 1619-20 में तानसेन का अकबरी दरबार में प्रवेश हुआ, अकबर के आश्रय में रहने से तानसेन की प्रसिद्धि सम्‍पूर्ण देश में व्‍याप्‍त हो गई थी। उन्‍हें मुगल सम्राट से अपूर्व आदर और विपुल वैभव प्राप्‍त हुआ था। जब अकबर को स्‍वामी हरिदास के अद्भुत संगीत सुनने की इच्‍छा हुई तब वे सं. 1623 के लगभग अलग वेश में वृन्‍दावन गये थे। वहां पर उन्‍होंने तानसेन के प्रयत्‍न से स्‍वामी जी का दिव्‍य संगीत सुना था।

  • तानसेन के पूर्ववर्ती संगीतज्ञ


  • अबुल फजल कृत 'आईने अकबरी' में मानसिंह तोमर के गायकों के नाम बक्‍सू, मच्‍छू और भानु लिखे गये हैं, जब‍ कि फकीरूल्‍ला ने उनके नाम बक्‍सू, मन्‍नू, कर्ण और महमूद लिखे हैं। किवदंतियों में बैजू को मानसिंह तोमर का प्रमुख गायक कहा जाता है, किन्‍तु उसका नाम न तो अबुलफजल ने लिखा है और न ही फकीरूल्‍ला ने। उपर्युक्‍त सभी गायकों के विषय में कहा जाता है कि उन्‍होंने मानसिंह तोमर द्वारा आविष्‍कृत ध्रुपद की गायकी को अपने गायन द्वारा लोकप्रिय बना दिया था, जिससे उसका व्‍यापक प्रचार हो गया था। उन गायकों में से मच्‍छू, भानू, मन्‍नू, कर्ण और महमूद के सम्‍बन्‍ध में कोई वृतांत उपलब्‍ध नहीं होता है और न उनकी रचनायें प्राप्‍त होती है।

  • बक्‍सू का प्रसंगात्‍मक उल्‍लेख अबुल फजल और फकीरूल्‍ला के ग्रंथों में हुआ है और उसके रचे हुये कुछ ध्रुपद भी मिलते हैं। बैजू का उल्‍लेख इतिहास के ग्रंथों में नहीं मिलता है, किंतु किंवदंतियों और अनुश्रुतियों में उसकी बहुत चर्चा होती है। बैजू के रचे हुये ध्रुपद भी पर्याप्‍त संख्‍या में उपलब्‍ध है। इनसे ज्ञात होता है कि चाहे बैजू के सम्‍बन्‍ध में कोई लिखित वृतांत उपलब्‍ध न हो, किंतु उसके अस्तित्‍व से इन्‍कार नहीं किया जा सकता। बक्‍सू और बैजू का नाम, समय, आश्रयदाता, संगीत, शैली और रचनाओं में इतना अधिक साम्‍य है कि कुछ विद्वानों ने उन दोनों के एक ही व्‍यक्ति होने की संभावना प्रकट की है। अब प्राय: यह निश्चित ही है कि वे दोनों पृथक-पृथक गायक थे, यद्यपि दोनों ही समकालीन ध्रुपद शैली के महान गायक मानसिंह तोमर के आश्रित थे।

  • अबुल फजल ने तानसेन के गायन की सर्वाधिक प्रशंसा करते हुए बक्‍सू के सम्‍बन्‍ध में लिखा है कि वह तानसेन के अतिरिक्‍त अपने समय का सबसे अधिक प्रशंसनीय गायक था। वह पहले मानसिंह तोमर के दरबार में और फिर उसके पुत्र विक्रमाजीत के आश्रय में था। जब इ‍ब्राहिम लोधी से पराजित होने के कारण ग्‍वालियर राज्‍य विक्रमाजीत के हाथ से निकल गया, तब वह विख्‍यात गायक कालिंजर के राजा कीरत के आश्रय में चला गया। वहां से उसे गुजरात के संगीतप्रिय सुल्‍तान बहादुरशाह (शासनकाल संवत् 1583-1593) ने अपने दरबार में बुला लिया था। बक्‍सू के रचे हुए कतिपय ध्रुपद भी मिलते हैं। उनसे उनमें से कुछ का संकलन श्री कृष्‍णानन्‍द व्‍यास द्वारा संपादित उत्‍तर भारतीय संगीत की विख्‍यात रचना 'राग कल्‍पद्रुम' में भी हुआ है। फिर भी वे अपनी अधिक संख्‍या में नहीं मिलते है, जितने तानसेन और बैजू के मिलते हैं। इससे ऐसा समझा जाता है कि उसने कदाचित अधिक ध्रुपदों की रचना नहीं की थी। किंतु ऐसी बात नहीं है। उसने वास्‍तव में कई सहस्‍त्र ध्रुपद रचे थे, जिनमें से एक हजार उत्‍तम रचनाओं का संकलन शाहजहां के काल में किया गया था। इस सम्‍बन्‍ध में निम्‍नलिखित उल्‍लेख दृष्‍टव्‍य है : शाहजहां के समय में सर्वश्रेष्‍ठ ध्रुपदों की विशेष छानबीन हुई और उसमें निर्णय किया गया कि उस समय के ध्रुपदकारों में नायक बक्‍सू के ही ध्रुपद सर्वोत्‍कृष्‍ट हैं। अत: शाहजहां की आज्ञानुसार नायक बक्‍सू के सही प्रा‍माणित ध्रुपद एकत्रित किये गये, उनमें से जो एक हजार सर्वोत्‍तम निकले, उनका एक बृहत् संकलन किया और चार राग तथा चालीस रागिनियों में विभाजित करके फारसी भूमिका सहित प्रकाशित किया गया। इनके 'राग-ए-हिंदी', 'सहस्‍त्ररस', 'एक हजार ध्रुपद', 'रागमाला' इत्‍यादि नाम रखे गए। इस ग्रंथ की पांडुलिपियां इंग्‍लैण्‍ड के इंडिया ऑफिस तथा वोडालियन पुस्‍तकालयों में मौजूद हैं।

100वां तानसेन समारोह

प्रसिद्ध तानसेन संगीत समारोह हर साल मध्यप्रदेश के ग्वालियर में तानसेन समाधि स्थल पर मनाया जाता है।

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